Friday, October 22, 2010

मन्जिल ना रॊशनी

मन्जिल ना रॊशनी कोई नजर आ रही है,
जिन्दगी ये न जाने किस ओर जा रही है,
कदम कदम पे कोई सहारा ढूढता हूं मै,
हर शै है के मुझसे दूर जा रही है ,
तन्हा ही निकल पडता हूं उन राहों पे मै,
जिन राहों से अब भी तेरी खूश्बू आ रही है,
छत पर खडे होकर चांद छूने की चाह्त है,
जाने क्यों मेरे घर की दीवारे धंसती जा रही है,
दोस्ती की किताब हर पन्ना बिखरने लगा,
मुलाकातों की चादर अब सिकुडती जा रही है,
रॊशनी की है जरूरत, जलाऊ कैसे दीपक,
हर तरफ़ से आंधियों की  आवाजें आ रही है,

4 comments:

  1. दीपक,
    रचना के हिसाब से पढ़ें तो अच्छा लिखा है तुमने।
    कुछ अंदाजे लगाने बैठूँ तो लैक्चर देने का मन करता है। एक बात कह्ता हूँ, कोई समस्या हो या खुशी की बात, ढूंढोगे तो हजार मिल जायेंगी। पहले की या वर्तमान की कोई ऐसी चीज अगर आंखों से दूर दिखती है तो ये मान लो कि अपने से किसी बड़ी को आने के लिये जगह देने के लिये अपने स्थान से हटी है। आखिरी पंक्ति में शायद कई के स्थान पर की आयेगा।
    cheer up.

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  2. @ मो सम कौन
    भाई साहब मार्गदर्शन के आभारी हूँ
    आशा करता हूँ आगे भी मिलता रहेगा।

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  3. छत पर खडे होकर चांद छूने की चाह्त है
    acchi koshish hi

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  4. आपकी कविता का यही स्वरूप भाता है।

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