प्रिया : यथार्थ से दूर,
स्वप्न लोक से, तुम कभी मिलने आना,
छोड चिंता भविष्य की
भूल कर वर्तमान का दुख
पाने को क्षण प्रेम के ,
प्रेम दीप बन जलने आना,
साथ न तुम लाना अपने,
असिमित साध्य, सिमित साधन,
और पग पग कमी अर्थ की,
केवल प्रेम का धन लेकर,
प्रेम व्यापार करने आना,
यथार्थ मे आना छोड,
उसकी बाते उसके कष्ट
प्रतिपल पलता द्वेष मन मे,
प्रेम क्यारी मे तुम प्रिय ,
प्रेम पुष्प बन खिलने आना,
भर लेना बाँहो मे मुझे,
पवित्र मन से करना आलिंगन,
मन मे उठी ज्वाला पर
छिडक कर प्रेम का जल,
जन्म जन्म की ये अगन बुझाना
छू लेना कोमल अधरो को,
अपने निष्पाप अधर से,
ध्यान रहे न टूटे सिमायें
प्रेम की मर्यादा तक सिमित हो,
प्रेम मुझे वो करने आना,
प्रिय :
स्वप्न लोक मे नही अरे हम, यथार्थ मे ही जीते है,
संभव नही यथार्थ मे वो, स्वप्न मे जो मधुरस पीते है
प्रश्न नही मधुर कल्पना का, नही स्वप्न लोक की ये बात,
प्रिय आलिंगन करते जब भी, अधर फडकते सुलगते गात,
कोमल अंग बन मालती जब, वक्ष तरू से लिपटती है,
प्रंचड प्रेमाग्नि मे उस पल सोयी भावनाये पिघलती है
उस पल धरे धर्य कौन, जब चार अधर जुड जाते हों
स्वभाविक है संयम खोना, जब हाथ कमर पर फिसल जाते हों
केवल कल्पना और स्वपन मे, ही सम्भव ऐसा हो पाता
मर्दायें नही तोडती दम, जब प्रिय बाँहो मे लहराता,
किस मन न जागेगा काम, प्रिय संग हो चाँदनी रात
टूटे न सीमाये प्रेम की, ये है यथार्थ से दूर की बात
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