पर्वत की गोद से ,
गिरा एक पत्थर,
जा मिला एक जलधारा मे,
सोचा यही है वो राह,
जो ले जाती है उस सागर तक,
जहाँ मिलेगें मोती प्रेम के,
छूपा लूंगा कुछ को सीने तले,
कुछ लगा लूंगा अपने मन से,
ये सोच, बह चला
उन धाराओं मे,
पाने उन मातियो को,
बहता रहा प्रबल वेग से,
बहुत दिनो तक,
सबसे अन्जान,
स्वयं से भी बेखर,
छोड़ दिया,
उसे धारा ने,
उस स्थान पर
जहाँ बनता था
उस धारा का डेल्टा
सागर के ही किनारे,
मन मे आया
कहाँ जाती है ये जल धारा
मुझे यहाँ छोडकर ?
मुझे तो सागर तक जाना था
जिसके लिए जल धारा लायी थी
क्यों छोडे जा रही है किनारे पर,
देखा स्वयं को,
अब न था
वो vishal पत्थर,
हो के रह गया था बस
एक रेत का कण
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