Tuesday, October 26, 2010

उपवन से लाया हूँ सुमन
केश तेरे सजाने को
सागर से लिये हैं मोती
माला कोई बनाने को
प्रीत मे पागल बुला रहा हूँ
तारे, आचँल तेरा सजाने को
           रात की काजल लेकर मै
          नैनो मे तेरे लगाऊ
          पथ मे तेरे बिछ जायें
          मै चुन के कलिया लाऊ
          हरपल जिसको तू गुनगुनाये
         गीत मै ऐसा बनाऊ
तुम आओ प्रिय पास मेरे
प्रेम से तुम्हे बुलाता हूँ
प्रेम का अमृत दूँगा तुम्हे
शपथ प्रेम की खाता हूँ
अन्धेरो का न परिवाद करो
मै दीपक बन जल जाता हूँ

4 comments:

  1. मैं दीपक बन जल जाता हूं...

    प्रभावशाली कविता।

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  2. मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।

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  3. बहुत खूब दीपक, खुद जलना और अंधेरे को दूर करना, यही तो है दीपक होने का अर्थ।
    बधाई।

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