उपवन से लाया हूँ सुमन
केश तेरे सजाने को
सागर से लिये हैं मोती
माला कोई बनाने को
प्रीत मे पागल बुला रहा हूँ
तारे, आचँल तेरा सजाने को
रात की काजल लेकर मै
नैनो मे तेरे लगाऊ
पथ मे तेरे बिछ जायें
मै चुन के कलिया लाऊ
हरपल जिसको तू गुनगुनाये
गीत मै ऐसा बनाऊ
तुम आओ प्रिय पास मेरे
प्रेम से तुम्हे बुलाता हूँ
प्रेम का अमृत दूँगा तुम्हे
शपथ प्रेम की खाता हूँ
अन्धेरो का न परिवाद करो
मै दीपक बन जल जाता हूँ
sundar ...!!
ReplyDeleteमैं दीपक बन जल जाता हूं...
ReplyDeleteप्रभावशाली कविता।
मन को छू लेने वाली कविता लिखी है आपने। बधाई।
ReplyDeleteबहुत खूब दीपक, खुद जलना और अंधेरे को दूर करना, यही तो है दीपक होने का अर्थ।
ReplyDeleteबधाई।