दंभ भरते हो जिस काया का
अभिमान कर जिसका इतराते हो
मुर्झायेगा ये सुमन एक दिन
जिस कारण मुझे ठुकराते हो
प्रिय बन जो अब साथ लगे है
कहते जिन्हे सदा तुम अपने
मधुशाला मे न मधु षेश रहेगा
भूल जायेयें ज्यों बिसरते सपने
मिट जायेगी लाली कपोल की
श्वेत , काजल से ये केश होंगे
दिखेगी रेखाये आयु की मुख पर
भिन्न अपने ये भेश होंगे
अंत होगी उमंगे मन की
चक्षु सागर मे न होगा ज्योति जल
चाह न रहेगी कुछ करने की
शेष रहेगा न तन मे बल
शेष रहेगा तो बस प्रेम मेरा
मन आयी तन चाह नही
सुगन्ध प्रेम की लेनी चाही
की पुष्प रंग परवाह नही
चाहा ना इस तरूण तनु को
मिला अमरता का जिसे पन्थ नही
चाहा मिलाना मन से मन को
क्योकि मेरे प्रेम का अन्त नही
वाह ! बहुत ही सुन्दर और सटीक बात कही है।
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (15/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
चाहा ना इस तरूण तनु को
ReplyDeleteमिला अमरता का जिसे पन्थ नही
चाहा मिलाना मन से मन को
क्योकि मेरे प्रेम का अन्त नही
बहुत सुन्दर ....अंतिम पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं
हौसलाअफजाइ के लिए धन्यवाद
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