Sunday, October 24, 2010

तुम कहती थी
“प्रेम पूजा है
मन मन्दिर और
तुम देवता“
प्रतिदिन आकर
चढाती थी स्नेह सुमन
और लगाती थी टीका
माथे पर मेरे
चन्दन का नही
चुम्बन का अपने,
तुम सदा चाहती थी
लीन रहना
इस पूजा में,


तुम कहती थी
प्रेमी और पुजारी
दोनो की एक साधना है
प्रेमी आस्था रखता है
अपने प्रिय मे
पुजारी भगवान मे,
पुजारी नही रहता
बिन पूजा किये
बिन दर्शन किये
अपने देवता के
और फिर प्रेमी भी तो
चैन नही पाता
बिन प्रिय को देखे


तुम कहती थी
मै पुजारी हूँ तुम्हारी
और तुम मेरे देवता
सदा यूँ ही करूंगी
अर्चना तुम्हारी
अर्पित करती रहूँगा
प्रेम पुष्य यूँ ही सदा
तुम्हारे चरणो मे,



परन्तु अब,
पिछले कुछ दिनो से
तुम न आयी
क्या नास्तिक हो गयी हो ?
या
मन मन्दिर मे रख ली है
नई प्रतिमा कोई


तुम सच कहती थी
तुम पुजारी हो मै देवता
तुम सचमुच पुजारी थी
पुजारी छोड देता है
पूजा एक भगवान की
फिर किसी दूसरे की
तुमने भी बदल लिया
अपना देवता

सदा से पुजारी ही बदलते है
कभी देवता नही बदलते
वे वही रहते है अपने स्थान पर
स्थिर अडिग
क्योकि वे जानते है
एक दिन उनका पुजारी
अवश्य आयेगा
फिर उन्ही की शरण मे

3 comments:

  1. किसी शायर ने ये भी कहा है,
    "कुछ तो वजह रही होगी,
    यूं ही कोई बेवफ़ा नहीं होता"
    हमारी कामना यही है कि सच्चा पुजारी देवता तक पहुंचे।

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  2. nishabd kar diya aapne Deepak ji ... kamaal ka likha hai ...

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  3. बहुत उत्तम भावपूर्ण रचना...

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