बैठा रहा चिंता नाग
मन पर कुण्डली मारे
डसता रहा, फन फैलाकर
बार बार मन मे भरता रहा
बेतोड अपनी विष आग,
रक्त की बूँद बूँद मे
रम गया विष इसका
धुआ हो गया शरीर
निष्चेतन होने लगे प्राण,
चाहा कई बार
मार डालूं ये नाग
सुरा की लाठी से
परन्तु, विफल रहा
हर प्रहार से,
वो अधिक बलवान होता गया,
और अधिक विषैला हो
डसता रहा,
निकली न कोई राह
इसको मारने की और,
खत्म करने की विष का प्रभाव,
असफल रहा हर शस्त्र,
क्षत विक्षप्त मन और
जीर्ण शीर्ण तन लेकर
जीता रहा, परन्तु कब तक ?
आखिर एक दिन
आत्मा ने बदल ही लिये वस्त्र
सुंदर भावाव्यक्ति अच्छी लगी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,
ReplyDeleteबड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....
ज़िन्दगी को नये अर्थ देती रचना।
ReplyDeleteअहा!!
ReplyDeleteचिंता का कहर, प्रभावोत्पादक रचना!!
sundar abhiwykti !
ReplyDeletesaleem khan
zinsagikiaarzoo.blogspot.com
*zindagikiaarzoo.blogspot.com
ReplyDelete@ सुनील कुमार जी,
ReplyDelete@ संजय भास्कर जी,
@ सुज़ जी,
@ सलीम खान जी,
ब्लाग पर आकर हौसला बढाने के लिए धन्यवाद,
आपका प्यार आर्शिवाद ऐसे ही मिलता रहे
चिंता को चिंतन में बदल देना चाहिये, अगर हो सके तो।
ReplyDeleteअच्छी रचना है, दीपक। ऐसा लिखते रहोगे तो प्यार मिलना ही है। बधाई।
@ मो सम कौन जी
ReplyDeleteधन्यवाद भाई साहब।
..उम्दा भाव।
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