एक बार जो तुम आ जाते,
मेरे अधरों पे बनकर गीत,
श्वास वीणा का बन संगीत,
मन से तुमको हम गुनगुनाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
सिर चढाते चरणों कई धूल,
स्वंय बन कर हम फूल,
पथ मे तुम्हारे बिछ जाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
चंदा बन दुनिया मे मेरी,
ना होती ये रात अन्धेरी,
आँसू मेरे तारे बन जाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
कितना स्नेह कितना प्यार,
मिलता मुझे नया संसार,
सर्वस्व तुम पे हम वार जाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
लाली इन कपोलों पर आती,
मुस्कान अन्नत अधरों पे छाती,
ह्रदय सुमन ना यूँ मुर्झाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
सावन के झूलों पर मेरे संग,
उपवन मे बन पुष्पों का रंग,
बसन्त मे मेरा घर महकाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
मरुथल मन मे बन प्रेम सागर,
सिचते प्रेम तरू भर क्ष्रद्धा गागर,
मेरे जीवन की प्यास बुझाते,
एक बार जो तुम आ जाते,
बाँध लेते बाँहो के बंधन,
कर लेते मेरा आलिंगन,
और पलके बंद कर शर्माते,
एक बार जो तुम आ जाते,
Thursday, March 11, 2010
Mere Prem ka Aant Nahi
दंभ भरते हो जिस काया का,
अभिमान कर जिसका इतराते हो,
मुर्झायेगा ये सुमन एक दिन,
जिस कारण मुझे ठुकराते हो,
प्रिय बन जो अब साथ लगे हैं,
कहते जिन्हे सदा तुम अपने,
मधुशाला मे न मधु शेष रहेगा,
भूल जायेंगें ज्यों बिखरते सपने,
मिट जायेगी लाली कपोलों की,
श्वेत काजल से केश होंगें,
दिखेगी रेखाये आयु की मुख पर,
भिन्न अपने ये भेष होगें,
अंत होगी उमंगे ये मन की,
चशु सागर मे होगा ज्योति जल,
चाह न रहेगी कुछ करने की,
शेष रहेगा न ये बाहुबल,
शेष रहेगा तो बस प्रेम मेरा,
मन आयी तन चाह नही,
सुगन्ध प्रेम की लेनी चाही,
की पुष्प रगं परवाह नही,
चाहा ना इस तरुन तनु को,
मिला अमरता का जिसे पन्थ नही,
चाहा मिलाना मन से मन क्योकि,
मेरे प्रेम का अन्त नही,
अभिमान कर जिसका इतराते हो,
मुर्झायेगा ये सुमन एक दिन,
जिस कारण मुझे ठुकराते हो,
प्रिय बन जो अब साथ लगे हैं,
कहते जिन्हे सदा तुम अपने,
मधुशाला मे न मधु शेष रहेगा,
भूल जायेंगें ज्यों बिखरते सपने,
मिट जायेगी लाली कपोलों की,
श्वेत काजल से केश होंगें,
दिखेगी रेखाये आयु की मुख पर,
भिन्न अपने ये भेष होगें,
अंत होगी उमंगे ये मन की,
चशु सागर मे होगा ज्योति जल,
चाह न रहेगी कुछ करने की,
शेष रहेगा न ये बाहुबल,
शेष रहेगा तो बस प्रेम मेरा,
मन आयी तन चाह नही,
सुगन्ध प्रेम की लेनी चाही,
की पुष्प रगं परवाह नही,
चाहा ना इस तरुन तनु को,
मिला अमरता का जिसे पन्थ नही,
चाहा मिलाना मन से मन क्योकि,
मेरे प्रेम का अन्त नही,
Sunday, March 7, 2010
Dhuaan
कितने ही रास्तो से,
आती आज भी उड कर धूल,
लग जाती मेरे सीने से,
स्मॄत हो आते
वो क्षण,
जब चले थे उन पर
थाम कर हाथ
एक दूजे का,
पूछ्ता है वो पेड
पत्तियाँ हिलाकर,
छाँव मे जिसकी कटती थी
सारी दोपहरी,
" वो जो,
पोछँती थी चुनरी से अपनी,
तेरे माथे पे आयी बूंदों को,
कहाँ है"
ये फूल बसन्ती सरसो के,
कहते,
" जो हमे तोड कर भर मुठठी
खिलखिलाकर,
तुम पर फेंकती और ताली बजाती,
वो कहाँ है"
क्या कहूँ क्या उत्तर दूँ,
उन सवालों का,
जो जला देते इस मन को,
और विवश करता,
आँखो को बरसने के लिये
आती आज भी उड कर धूल,
लग जाती मेरे सीने से,
स्मॄत हो आते
वो क्षण,
जब चले थे उन पर
थाम कर हाथ
एक दूजे का,
पूछ्ता है वो पेड
पत्तियाँ हिलाकर,
छाँव मे जिसकी कटती थी
सारी दोपहरी,
" वो जो,
पोछँती थी चुनरी से अपनी,
तेरे माथे पे आयी बूंदों को,
कहाँ है"
ये फूल बसन्ती सरसो के,
कहते,
" जो हमे तोड कर भर मुठठी
खिलखिलाकर,
तुम पर फेंकती और ताली बजाती,
वो कहाँ है"
क्या कहूँ क्या उत्तर दूँ,
उन सवालों का,
जो जला देते इस मन को,
और विवश करता,
आँखो को बरसने के लिये
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