तुम्हे देखा सपने में,
आंचल हवा मे लहराते हुये,
बात करते हुये चन्दा से,
बादल केशो का उडाते हुये,
तुम्हे देखा सपने में,
मुझे इशारे से बुलाते हुये,
देखकर मेरे बढते कदम,
किसी डर से घबराते हुये,
तुम्हे देखा सपने में,
कुछ सोचकर शर्माते हुये,
दांतो मे दबाते अधरों को,
मंद मंद मुस्काते हुये,
तुम्हे देखा सपने में,
कलाई मुझसे छुडाते हुये,
भावना का संसार सजाकर
पलको को झुकाते हुये,
तुम्हे देखा सपने में,
बांहो को फॆलाते हुये,
उठाकर बोझिल पलकों को,‘
मुझे सीने से लगाते हुये,
तुम्हे देखा सपने में,
Monday, February 15, 2010
Manzil Na Roshani
मन्जिल ना रॊशनी कोई नजर आ रही है,
जिन्दगी ये न जाने किस ओर जा रही है,
कदम कदम पे कोई सहारा ढूढता हूं मै,
हर शै है के मुझसे दूर जा रही है ,
तन्हा ही निकल पडता हूं उन राहों पे मै,
जिन राहों से अब भी तेरी खूश्बू आ रही है,
छत पर खडे होकर चांद छूने की चाह्त है,
जाने क्यों मेरे घर की दीवारे धंसती जा रही है,
दोस्ती की किताब हर पन्ना बिखरने लगा,
मुलाकातों की चादर अब सिकुडती जा रही है,
रॊशनी की है जरूरत, जलाऊ कैसे दीपक,
हर तरफ़ से आंधियों कई आवाजें आ रही है,
जिन्दगी ये न जाने किस ओर जा रही है,
कदम कदम पे कोई सहारा ढूढता हूं मै,
हर शै है के मुझसे दूर जा रही है ,
तन्हा ही निकल पडता हूं उन राहों पे मै,
जिन राहों से अब भी तेरी खूश्बू आ रही है,
छत पर खडे होकर चांद छूने की चाह्त है,
जाने क्यों मेरे घर की दीवारे धंसती जा रही है,
दोस्ती की किताब हर पन्ना बिखरने लगा,
मुलाकातों की चादर अब सिकुडती जा रही है,
रॊशनी की है जरूरत, जलाऊ कैसे दीपक,
हर तरफ़ से आंधियों कई आवाजें आ रही है,
Sunday, February 14, 2010
vidhwa
विधवा की मांग सी है मेरी ज़िंदगी
बरसो से जो सूनी पडी है
शायद भर जयेगी उसके आने से
सामने वो जो सिन्दूर बन के खडी है
दिल ओ जान से जिनपे मरते रहे हम
वो पूछ्ते हैं किससे प्यार करते रहे हम
पास रह कर भी वो हम से दूर है बहुत
बात दिल की उनसे कहने से डरते रहे हम
बरसो से जो सूनी पडी है
शायद भर जयेगी उसके आने से
सामने वो जो सिन्दूर बन के खडी है
दिल ओ जान से जिनपे मरते रहे हम
वो पूछ्ते हैं किससे प्यार करते रहे हम
पास रह कर भी वो हम से दूर है बहुत
बात दिल की उनसे कहने से डरते रहे हम
smriti
स्मर्ति के पन्नो पर चित्र एक अन्कित है,
कई रंगो से सजा प्रेम तुम्हारा संचित है,
तरंगें उठती ज्यो गर्भ सागर से, तोड देती तटो का सीना,
मन मे उठती भावनायें मेरे, भेद कर धर्य का सीना,
तुम मिले मुझको ज्यों प्यासी धरा को जल की धार,
निर्धन मन कुबेर हो गया दिया मोती सा प्रेम अपार,
सुख के पल बुलबुले पानी के पल मे बनते फूट जाते,
सम्भाले रखा हर्दय मे मैने पल थे जो हंसते गुद्गुदाते,
छूट गया अब संग तुम्हारा टूट गया मिलन का त्तार,
मिट गयी गाढे प्रेम की रेखा मिट सका न उभार,
सजकर नववधू सी वेदनायें चली आती हैं,
चूभती शूल सी मन को तेरी स्मर्ति कराती है,
कई रंगो से सजा प्रेम तुम्हारा संचित है,
तरंगें उठती ज्यो गर्भ सागर से, तोड देती तटो का सीना,
मन मे उठती भावनायें मेरे, भेद कर धर्य का सीना,
तुम मिले मुझको ज्यों प्यासी धरा को जल की धार,
निर्धन मन कुबेर हो गया दिया मोती सा प्रेम अपार,
सुख के पल बुलबुले पानी के पल मे बनते फूट जाते,
सम्भाले रखा हर्दय मे मैने पल थे जो हंसते गुद्गुदाते,
छूट गया अब संग तुम्हारा टूट गया मिलन का त्तार,
मिट गयी गाढे प्रेम की रेखा मिट सका न उभार,
सजकर नववधू सी वेदनायें चली आती हैं,
चूभती शूल सी मन को तेरी स्मर्ति कराती है,
Saturday, February 13, 2010
aarzoo
पर्वत की गोद से,
गिरा एक पत्थर,
किसी तलधारा में,
सोचा
"यही है वो राह
जो ले जाती है,
उस सागर तक जहां मिलेंगें
मोती प्रेम के,
छूपा लूंगा कुछ को सीने तले,
कुछ को लगा लूंगा अपने मन से",
ये सोच बह चला
उन धाराओ मे
पाने उन मोतियों को
बहता रहा
प्रबल वेग से,
बहती धाराओं में
बहुत दिनो तक,
सबसे अन्जान स्वयं से बेखबर,
छोड दिया धारा ने,
उस स्थान पर जहां बनता था
उस धारा का डेल्टा,
सागर के ही किनारे,
मन मे आया
"कहां जाती है ये जलधारा
मुझे यहां छोड कर,
मुझे तो सागर तक जाना था,
जिसके लिये ये जलधारा
मुझे लायी थी,
फ़िर क्यों छोडे जा रही है
मुझे किनारे पर ,
देखा स्वयं को ,
अब न था वो विशाल पत्थर,
हो कर रह गया था,
बस एक "रेत का कण"
गिरा एक पत्थर,
किसी तलधारा में,
सोचा
"यही है वो राह
जो ले जाती है,
उस सागर तक जहां मिलेंगें
मोती प्रेम के,
छूपा लूंगा कुछ को सीने तले,
कुछ को लगा लूंगा अपने मन से",
ये सोच बह चला
उन धाराओ मे
पाने उन मोतियों को
बहता रहा
प्रबल वेग से,
बहती धाराओं में
बहुत दिनो तक,
सबसे अन्जान स्वयं से बेखबर,
छोड दिया धारा ने,
उस स्थान पर जहां बनता था
उस धारा का डेल्टा,
सागर के ही किनारे,
मन मे आया
"कहां जाती है ये जलधारा
मुझे यहां छोड कर,
मुझे तो सागर तक जाना था,
जिसके लिये ये जलधारा
मुझे लायी थी,
फ़िर क्यों छोडे जा रही है
मुझे किनारे पर ,
देखा स्वयं को ,
अब न था वो विशाल पत्थर,
हो कर रह गया था,
बस एक "रेत का कण"
Subscribe to:
Posts (Atom)