Thursday, November 17, 2011

धूल

कितने ही रास्तो से,
आती आज भी उड कर धूल,
लग जाती मेरे सीने से,
स्मॄत हो आते 
वो क्षण,
जब चले थे उन पर 
थाम कर हाथ 
एक दूजे का,

पूछ्ता है वो पेड
पत्तियाँ हिलाकर,
छाँव मे जिसकी कटती थी
सारी दोपहरी,
" वो जो,
पोछँती थी चुनरी से अपनी,
तेरे माथे पे आयी बूंदों को,
कहाँ है"

ये फूल बसन्ती सरसो के,
कहते,
" जो हमे तोड कर भर मुठठी 
खिलखिलाकर,
तुम पर फेंकती और ताली बजाती,
वो कहाँ है"

क्या कहूँ क्या उत्तर दूँ,
उन सवालों का,
जो जला देते इस मन को,
और विवश करते है 
आँखो को बरसने के लिये

Monday, November 7, 2011

अनाड़ी

बहुत दिनों से ब्लाग से दूर हूँ , कारण मैं क्या बताऊ शायद ये कविता कुछ बता दे 


दो बैलो की गाड़ी 
दोनों ही अनाड़ी


एक खीचे पूरब की ओर 
दूजा पच्छिम को लगाये जोर 
समझ दोनों की अलग 
फिर भी बंधी दोनों की डोर 


एक बिना हरे के भूखा 
एक को सब्र देता है भूसा
एक नांद  से दोनों बंधे है 
खाने को मिले जो रूखा सूखा 


साथ है रहना, दोनो ही जाने 
फिर भी दूजे की बात न माने 
बिना बात तकरार करे वो 
पागल भये, वो हुए दीवाने 


प्रेम दोनों तरफ पलता है 
तभी तो पहिया सही चलता है 
कदम लडखडाते है जब एक के 
तो दूजा एकदम संभालता है 


यूं ही चलते चलते 
हो जायेंगे खिलाडी 
दो बैलो की गाड़ी 
दोनों ही अनाड़ी