Monday, January 31, 2011

वो पल

तुम आये
आकर चले गये
आखिरी बन गयी
पहली ही मुलाकात
कुछ कहा भी नही तुमने
और न सुना
जो मैने कहा था


उन कुछ पलो मे
सिमट कर रह गया हूँ मै
और मेरी जिन्दगी  भी
उन पलो मे
देखा है मैने
फूल को मुस्काते हुए
तारीफ सुनकर शर्माते हुए
फिर किसी डर से घबराते हुए
मन को आकाश मे घूमते
सपनो को बनते और
टूट जाते हुए


उन पलो से सीखा है मैने
सही अर्थ प्रेम का
परिभाषा जीवन की
और मजबूरिया इंसान की
जो रोकती है हमे
वो करने से जो हम चाहते है
उसे अपनाने से
जिसे हम चाहते है

वो पल
भूलाये नही भूलते
एक पल को भी नही हटता
वो दृश्य आँखो से
वो पहली मुलाकात
जो आखिरी बन गयी

Monday, January 24, 2011

सन्नाटा

गहरा सन्नाटा है
शोर से पहले
और
शोर के बाद
जानते हुए भी
खोये रहते है इसी शोर में
हजारों पाप की गठरी लादे
चले जाते है
भूल कर उचित अनुचित
मगन रहते है
इसी शोर में
जो क्षणिक है 
अन्जान  बने रहते है
उस सन्नाटे से
जो सत्य है
जो निश्चित है
हर शोर के बाद

Tuesday, January 18, 2011

तूफान

वो बन के मेहमान आया मेरे कमरे मे
कल रात तूफान आया मेरे कमरे मे
पहले तो आकर बत्ती बुझा दी
करने मुझे बदनाम आया मेरे कमरे मे
खोले केश और आँचल उडा दिया
करने मुझे परेशान आया मेरे कमरे मे
सिहरन सी एक बदन मे उठी
शरारत करने नादान आया मेरे कमरे मे
प्यारी सी आवाजे गुजने लगी कानो मे
बन संगीत सा अंजान आया मेरे कमरे मे
छुप कर आना उसकी फितरत नही
बर्बाद  करने सरेआम आया मेरे कमरे मे

Monday, January 10, 2011

शादी के बाद

मित्रो मेरी पिछली पोस्ट (शादी से पहले) ने थोडा सा कंफयूजन पैदा कर दिया है। सब मित्र सोच रहे है मै अभी तक आजाद (कुवाँरा)  हूँ , ये कविता मैने 3 जनवरी 2004 को लिखी थी। और इसका असर देखिये कि 2 मई 2004 को मेरी आजादी छिन गयी। उसके बाद मैने लंबे समय तक कोई कविता ही नही लिखी (कारण पता नही) और जो लिखी (21 अक्टूबर 2004) वो हाजिर कर रहा हूँ



क्या कहूँ कविता कोई, क्या कोई गीत सुनाऊ
जीवन है मकडी का जाला, पग-पग फंसता जाऊ,
                           दुनिया मे आया, आकर रोया,
                           रोकर फिर चुप हो गया,
                           लडा, झगडा पाप ढोया,
                           थक कर एक दिन सो गया,
                           अन्त समय भी यही थी कोशिश
                           काम अधूरे करता जाऊ,
जीवन है मकडी का जाला, पग-पग फंसता जाऊ,
                          झूठ की धरती पे मैने
                          पाप के थे बाये दाने,
                          थाली मे दुष्कर्म सजे थे
                          बन कर तरह -तरह के खाने
                          बोया था पेड बबूल का
                          तो आम कहाँ  से पाऊ
जीवन है मकडी का जाला, पग-पग फंसता जाऊ,
                        इससे लिया उसको दिया
                        कितनो का लेकर भूल गया
                        नून-तेल-लकडी की खातिर
                        अपने हाथो से मूल गया
                        है सत्य यही जीवन का
                        इसको कैसे झुठलाऊ
जीवन है मकडी का जाला, पग-पग फंसता जाऊ,
क्या कहूँ कविता कोई, क्या कोई गीत सुनाऊ

Saturday, January 8, 2011

शादी से पहले

पिता जी पुत्रवधु ले आओ
              बढने लगी है ठंड रात मे
             होता है कम्पन्न गात मे
             जल्दी कोई  लगन सुझवाओ  
             पिता जी पुत्रवधु ले आओ
 थक गया सेंक - सेंक कर रोटी
कोई अधजली तो कोई मोटी
अब तो अच्छा भोजन करवाओ
पिता जी पुत्रवधु ले आओ
           बाहर मै औरों को देखूं
          पर नारी से आँखे सेंकू  
          इन हरकतो पर अकुंश लगवाओ
          पिता जी पुत्रवधु ले आओ
बार बार कोई ध्यान मे आये
मेरे काम मे बिध्न कराये,
मेरी नौकरी को बचवाओ
पिता जी पुत्रवधु ले आओ
              यार मेरे सब मुझको घेरे
              कहते तुम कब लोगे फेरे
              इन ठलुओ के हाथ धुलवाओ
              पिता जी पुत्रवधु ले आओ
जो यूँ बीत गये कुछ साल
तो पक जायेंगे मेरे बाल
समय रहते मंडप सजवाओ
पिता जी पुत्रवधु ले आओ

Sunday, January 2, 2011

कुत्ता और चाँद

क्यो रे!
किसे भौंक रहा है ?
इतनी रात गये
किसे टोक रहा है
दूर दूर तक कोई नही
ना आदमी, ना अपनी बिरादरी
फिर क्यो चिल्ला रहा है
तबियत तो ठीक है?
जो शोर मचा रहा है


तुम तो पालतू हो
तुम्हे तेा दिखायी नही देता
ऊपर छत अड जाती है
मै बाहर हूँ खुले आसमन मे,
सडक पर
देखो वो चाँद
अकेला ही लड रहा है
इस घोर अन्धकार से
कोई पास नही है
पता है मुझे
नही कर सकता मै प्रकाश
उस की तरह
ना ही हाथ बँटा सकता हूँ उसका
फिर भी
बताना चाहता हूँ उसे
कि इस ठण्डी काली रात मे
वो अकेला नही है
मै भी साथ हूँ उसके