Monday, February 28, 2011

मै निठल्ला हूँ

मै निठल्ला हूँ
दिन भर कुछ  नही करता
बस सोचता हूँ
बेमतलब की बातों मे
मतलब खोजता हूँ
जब भी टी0वी0  खोलता हूँ
विज्ञापन दिखाई देता है
अर्धनग्न लडकी
साबुन दिखा रही है
या शरीर, समझ नही आता है
शैम्पू के विज्ञापन मे
टांगे दिखा रही है
टूथपेस्ट बेचने के लिए
होठो से होठ मिला रही है
बच्चे चाव से देखते है
मम्मी शरमा रही है
थोडी देर बाद
गीत चल जाता है
उसमे भी नग्न नायिका
नायक नजर आता है
टी0वी0 बन्द कर
अखबार खोलता हूँ
“एक और घोटाला हुआ“
“एक जोडी प्रेमी जलाया“
“सदन बंद रहा“
“विपक्ष ने हल्ला मचाया“
रोज की तरह यही
हेडलाईन थी आज भी
जो कल हुआ था
आज भी हुआ
और अखबार रख देता हूँ
सोचता हूँ
जो हुआ, क्यो हुआ
जो हो रहा है क्यो हो रहा है
क्या यही सब होगा भविष्य मे भी
क्यो नही आती ऐसी खबर
 कि लगे हाँ अच्छा हुआ
क्यो नही दिखता कुछ ऐसा
जिसे देख मन प्रसन्न हो
नई पीढी कुछ अच्छा सीखे
कुछ भला हो इस देश का
लेकिन कैसे
मै सोचता हूँ
सिर्फ सोचता हूँ
करता कुछ नही
क्योकि
मै निठल्ला हूँ

Monday, February 21, 2011

तुम होगी चंचल, सुकोमल

आज एक पुरानी कविता झेलिये


तुम होगी चंचल, सुकोमल
अप्सरा कोई इन्द्र सभा की
मुख पर होगी अनन्त लाली
ज्यो रवि की प्रथम प्रभा की
आकाश से चाँदनी रात मे
आओगी किरणो के रथ पर
पग पग पुष्प् गिराएंगे  देव
प्रिय तुम्हारे पथ पर
ऐसा कहाँ सोचा है मैने



सिकती दोपहर मे, किसी सडक पर
किताबो को सीने से लगाये
बार बार पोछती माथे की बूंदो को
एक हाथ मे पेन दबाये
पिरियड पकडने की जल्दी मे
तुम मुझसे टकरा जाओगी
यूँ ही कभी किसी मोड पर
तुम मुझको मिल जाओगी
बस ऐसा ही सोचा है मैने



22.02.2002

Saturday, February 12, 2011

किसी दिन


देखूँगा किसी दिन झाँककर जरूर तेरी आँखो मे
अपनी आँखो के आँसू पहले मै सुखा लूँ
                    भर लूंगा तुझे भी बाँहो मे किसी दिन
                   सिसकती बहनों को सीने से पहले मै लगा लूँ
सहलाऊंगा तेरे भी माथे को हमसफर
अपनी माँ के पैरो को पहले मै दबा लूँ
                  उठाऊंगा तुझे भी अपनी गोद मे किसी दिन
                  बोझ पिता के कंधो का पहले मै उठा लूँ
उठाऊगाँ तेरा ही घुघंट एक दिन जरूर
डोली अपनी बहनो की पहले मै उठा लूँ
                  तेरी ही हाथ थामूगाँ वादा है ये मेरा
                 अपने आप को इस काबिल पहले मै बना लूँ

Tuesday, February 8, 2011

मेरी धरती मेरी माँ

तेरा सीना चीरते चीरते
पुरखे मेरे र्स्वग सिधारे
तू थकी ना अन्न देती देती
ना वे हल चलाते हारे
                  बचपन मेरा सना रहा तुझमे
                  तुझमे यौवन ने ली अंगडाई
                  तू थी, तो बसा घर मेरा
                  तुझ से ही अंगीठी जल पायी
कैसे जाने दूँ यूँ ही तुझको
तू “सरकार“ को भा गयी
कैसे करने दूँ अधिग्रहण उसे
वो डायन कितनो को खा गयी
                   मै बेटा हूँ किसान का
                   माँ हमारी है ये धरती
                  “सरकार“ बदल लो अपना इरादा
                   क्यो किसान से है पंगा करती
है क्या पास सिवाय धरते के
जिसके सहारे मै रहूँगा
(सुनो “सरकार“) मार दूंगा या मर जाऊँगा
पर माँ पर आंच ना आने दूंगा