कितने ही रास्तो से,
आती आज भी उड कर धूल,
लग जाती मेरे सीने से,
स्मॄत हो आते
वो क्षण,
जब चले थे उन पर
थाम कर हाथ
एक दूजे का,
पूछ्ता है वो पेड
पत्तियाँ हिलाकर,
छाँव मे जिसकी कटती थी
सारी दोपहरी,
" वो जो,
पोछँती थी चुनरी से अपनी,
तेरे माथे पे आयी बूंदों को,
कहाँ है"
ये फूल बसन्ती सरसो के,
कहते,
" जो हमे तोड कर भर मुठठी
खिलखिलाकर,
तुम पर फेंकती और ताली बजाती,
वो कहाँ है"
क्या कहूँ क्या उत्तर दूँ,
उन सवालों का,
जो जला देते इस मन को,
और विवश करता,
आँखो को बरसने के लिये
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